पुस्तक समीक्षा: पथरीली पगडंडियों पर (पद्म भूषण डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया की आत्मकथा)
- Shikhar Sumeru
- Nov 1, 2021
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आपदा में अवसर से श्रेयस्कर है, आपदा के बावजूद अवसर तलाशना। न केवल तलाशना, वरन उन्हें क्रियान्वयन से फलदायी होने तक उनका पोषण करना। कुछ ऐसा ही सार है "पथरीली पगडंडियों पर" का, जो आत्मकथा है ख्यातिप्राप्त भू-वैज्ञानिक पद्म भूषन डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया की।
बर्मा में बचपन से ले कर द्वित्तीय विश्वयुद्ध के दौरान पलायन तक, मौत को मात देने से ले कर, श्रवण शक्ति के ह्रास को जीतने तक, उच्च शिक्षा जगत के मैले माहौल में उन्नति से ले कर, नौकरशाही के कछुआचाल रेड-टेप तक, या यूँ कहें कि, इन सबके बावजूद, डॉ. वल्दिया ने अपने जीवन को जिन बहुआयामी ऊंचाइयों तक पहुँचाया, उसका सजीव वर्णन उन्होंने पुस्तक में किया है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि प्रोफेसर वल्दिया के मस्तिष्क को जहाँ एक ओर धरती माँ का आशीर्वाद था, जो उनकी हिमालयन भू-विज्ञान-सम्बन्धी कालजयी खोजों में परिलक्षित है, वहीं दूसरी ओर उनकी लेखनी को स्वयं हंसवाहिनी माँ शारदा का वरद-हस्त था, 'जिसकी परिणति हमें 'हिंदी सेवी सम्मान' में देखने को मिलती है।
शंकालु पाठक "पथरीली पगडंडियों में" पढ़कर अपना शंका निवारण कर सकते हैं।

प्रोफेसर वल्दिया की शैली, शब्दों का चयन, वाक्य-विन्यास, कथानक की तर्क-जनित गतिशीलता, किसी पेशेवर लेखक को नयी प्रेरणाएं देने की योग्यता रखते हैं। सुधी पाठकगण पाएंगे की लेखक का गद्य एवं पद्य, दोनों, पर सामान अधिकार है। उदहारणशः, गद्य-जनित अनुप्रास हर लेखक के वश का नहीं है। आप कम रखें, या नहीं रखें, तो पाठक आपकी गद्य-सहज नीरसता भाँप जायेंगे; आप अनुपास का आधिक्य करें, तो वह रचना को कृत्रिम, बल्कि भावशून्य, बना देगा।
किन्तु "पथरीली पगडंडियों पर" में आपको अनुप्रास (और अन्य "गद्य में पद्य" तत्वों) का साहित्य-संगत तथा न्यायोचित मिश्रण देखने को मिलता है। पुस्तक का नाम ही इसका एक ज्वलंत उदाहरण है, जो केवल नाम नहीं, बल्कि त्रि-आवृत्तीय अनुप्रास है; इतना ही नहीं इसकी शाब्दिक सार्थकता भी देखिये... वस्तुतः एक भू-वैज्ञानिक के जीवन का सार ही तो है पुस्तक का शीर्षक।
रात-दिन, सांझ-सवेरे, भूखे-प्यासे, अज्ञात राहों पर चढ़ते-उतरते किसी स्थान विशेष के भूगोल का इतिहास समझना 'पथरीली पगडंडियों पर' चलने से ही तो संभव है !
पुस्तक के अंत में प्रोफेसर वल्दिया की हिमालयी जेयोलोजी को पुनर्परिभाषित करती खोज का सार भी उन्होंने दिया है। तर्क-खोजी मानस की क्षुधा शांत करने हेतु ये परिशिष्ट अति सहायक सिद्ध होते हैं।
वर्षों तक हिमालयी भू-भाग को चहुँ-दिशाओं से मापने-नापने के दौरान लेखक के अनुभवों का वर्णन, इन यात्राओं की कहानियां, पुराने डाक-बंगलों के किस्से, पारलौकिक किंवदंतियाँ -- इन सभी को कथानक में इतने सटीक रूप से जगह दी गयी है जैसे कोई कुशल फिल्म निर्देशक मुख्य और गौण पात्रों में सामंजस्य बिठलाता है।
रहस्य-रोमांच में रुचि रखने वाले पाठकों को इन किस्सों में इंडियाना जोन्स के पुरातात्विक कारनामों की झलक मिल सकती है, किन्तु चाबुक के बिना :))
पाठक इस बात से मगर अवश्य सहमती रखेंगे कि डॉ वल्दिया की लेखन शैली काल्पनिक डॉ. जोन्स के चाबुक से कहीं चपल और सटीक अवश्य है।
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